नाटक-एकाँकी >> नये हिंदी लघु नाटक नये हिंदी लघु नाटकनेमिचन्द्र जैन
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दस नाटककारों के नाटकों का अद्धुत संकलन
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
नेशनल बुक ट्रस्ट ने इससे पूर्व हिंदी एकांकी शीर्षक से एक संकलन (श्री
चंद्रगुप्त विद्यालंकार द्वारा संपादित) प्रकाशित किया था। उस संकलन के
बाद हिंदी एकांकी में बहुत बदलाव आया और उसने विधा का एक मूर्त रूप पाया
है। श्री नेमिचंद्र जैन द्वारा संपादित यह संकलन पहले संकलन का मात्र
दूसरा भाग नहीं हैं, एकांकी-लेखन का दूसरा कदम भी है। उनके शब्दों में इस
बीच रंगमंच और नाटक-रचना के बीच सक्रिय और जीवंत संपर्क के फलस्वरूप नाटक
और एकांकी के बीच विभाजन एक हद तक निरर्थक हो गया है..। इस संकलन के दस
नाटककारों के नाम हैः मोहन राकेश, विपिन कुमार अग्रवाल, सुरेंद्र वर्मा,
मणि मधुकर, रामेश्वर प्रेम, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, रमेश बक्षी, ललित
मोहन थपल्याल, शांति मेहरोत्रा, शंभुनाथ सिंह।
भूमिका
हमारे देश के लिए एकांकी या लघु-नाटक की
परंपरा नयी नहीं
है। नाट्य शास्त्र में जिन रूपकों-उपरूपकों का उल्लेख है उनमें से कई केवल
एक ही अंक के होते थे, जैसे प्रहसन, भाण आदि। पिछली शताब्दी में जब हिंदी
में पश्चिमी प्रभाव से नाटक और रंगमंच के नये दौर की शुरूआत हुई तो आधुनिक
हिंदी नाटक के जन्मदाता भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने भी अंधेर नगरी जैसे छोटे
नाटक लिखे। उनके अन्य समकालीनों और परवर्तियों की भी पूर्णाकार नाटकों के
साथ लघु-नाटक लिखने में रुचि रही। इस शताब्दी में जयशंकर प्रसाद का एक
घूंट और उनके कुछ पूर्ववर्तियों और समकालीनों के नाटक भी इसी कोटि के हैं।
पर वास्तव में व्यापक रूप से आधुनिक ढंग का एकांकी-लेखन हिंदी में इस शताब्दी के चौथे दशक में ही शुरू हुआ। इसकी प्रेरणा शायद अंग्रेजी के कर्टेन रेजर से, यानी मुख्य नाटक शुरू होने के पहले दर्शकों को शांत रखने के लिए प्रस्तुत किये गये अल्पकालीन नाट्य-प्रदर्शन से आयी। पर जहाँ अंग्रेजी के ‘कर्टेन रेजर’ का जन्म रंगमंच पर हुआ, वही हिंदी में एकांकी नाटक का प्रारंभ मूलतःरंगमंच की जरूरतों के लिए नहीं हुआ। चौथे दशक में हिंदी में कोई रंगमंच था ही नहीं। पारसी थिएटर कंपनियां भी, जो शहर-शहर घूमकर थोड़े-बहुत नाटक दिखाती रहती थीं, अब बंद हो रही थीं, नाटक खेलने वाली अव्यावसायिक मंडलियां तो नहीं के बराबर ही थीं। जो थोड़ा-बहुत नाटक देखने-खेलने और विशेषकर पढ़ने का शौक था, वह विश्वविद्यालयों और कालेजों तक ही सीमित था। हिंदी में एकांकी मूलतः इसी समुदाय की जरूरतों के लिए लिखे जाने शुरू हुए और मुख्यतः उन्हीं को पूरा करते रहे। इसी कारण बहुत ही कच्चे, यदा-कदा होने वाले प्रदर्शनों से संबद्ध होने के कारण हिन्दी एकांकी पर एक प्रकार के शौकियापन की छाप लगातार रहती आयी।
परवर्ती वर्षों में हिंदी का एकांकी-लेखन सक्रिय और समर्थ रंगमंच के अभाव में अधिकाधिक ‘साहित्यिक’ विधा का रूप लेता गया और धीरे-धीरे उसने विश्वविद्यालयों में हिंदी-साहित्य के पाठ्यक्रमों में स्थान बना लिया। चौथे दशक के अंत में रेडियो केंद्र खुलने से उनके लिए भी छोटे नाटक-नुमा रूपकों की जरूरत होने लगी और उसने भी अनेक लेखकों-कवियों, कथाकारों, उपन्यासकारों को, कुछ शौक के लिए, कुछ नयी विधा में हाथ आजमाने के लिए, और कुछ अतिरिक्त आय के लिए, एकांकी लिखने को प्रेरित किया। इस प्रकार हिंदी एकांकी-लेखन नाटक और रंगमंच का एक अंग और अंश होने के बजाय, मूलतः अन्य सूत्रों से अधिक जुड़ा रहा है और इसका बड़ा गहरा और प्रत्यक्ष प्रभाव हमारे संपूर्ण एकांकी साहित्य पर साफ दिखाई पड़ता है।
यह नहीं कि इस तरह लिखे जाने वाले एकांकी कभी खेले नहीं जाते थे। निस्संदेह विश्वविद्यालयों और स्कूल-कालेजों के वार्षिक अधिवेशनों में, या कभी-कभी अन्य अवसरों पर किसी-किसी अधिक अग्रगामी विश्वविद्यालय के अन्य शैक्षिक संगठनों या क्लबों द्वारा, या किसी-किसी कालेज की ‘ड्रमेटिक एसोसिएशन’ द्वारा उनके प्रदर्शन होते रहे हैं। स्वाधीनता मिलने के बाद से तो यह प्रक्रिया कई गुना बढ़ी है। पर ऐसे अधिकांश प्रदर्शन रंगमंचीय कार्य-कलाप की इतनी कम जानकारी और इतनी कम तैयारी के साथ होते रहे हैं, और अब भी होते हैं, कि उनको किसी प्रकार के कलात्मक कार्य का दर्जा देना कठिन है। इसीलिए अधिकांश एकांकी न तो किसी सक्षम-समर्थ रंगमंच के प्रभाव से रचे गये, न बाद में वैसे रंगमंच पर उनका कोई परीक्षण-प्रयोग हो सका।
इस दौर के एकांकीकारों में एक महत्वपूर्ण अपवाद है भुवनेश्वर। उन्होंने केवल एकांकी ही लिखे और उनकी संख्या भी बहुत नहीं है। उनका पहला संग्रह कारवां सन् 1935 में प्रकाशित हुआ था और बाद में पांचवें-छठे दशक में भी उन्होंने कुछ एकांकी लिखे। पर उनके ऊपर बर्नाड शा और इब्सन के विचारों और नाट्य-चेतना का गहरा प्रभाव पड़ा था। साथ ही उनका अपना भावबोध भी कुछ इस प्रकार का था कि वे अपने अनुभव की नाटकीयता को सहज ही पकड़ पाते थे, और ऐसे अंदाज से प्रस्तुत करते थे जो हिंदी नाटक लेखन के लिए एकदम नया और अपरिचित था। बल्कि शायद यह कहना ज्यादा ठीक हो कि उनके नाटकों की संवेदना और संरचना, दोनों ही अपने युग से बहुत आगे की थी। विषयवस्तु की सूक्ष्मता और सार्थकता, शिल्प की नवीनता, और भाषा की बहुस्तरीयता तथा व्यंजना की दृष्टि से उनके नाटक आज भी महत्वपूर्ण हैं। यद्यपि रंगमंच के अभाव में शुरू में वे बहुत खेले नहीं गये, पर पिछले दो-तीन दशक में ऊसर, तांबे के कीड़े, स्ट्राइक, आजादी की नींव आदि उनके नाटक जब भी मंच पर प्रस्तुत किये गये, सदा बहुत प्रभावी हुए हैं।
छठे दशक के मध्य से हिंदी रंगमंच का नये सिरे से विकास और प्रसार होने पर हिंदी एकांकी का जीवंत रंगकार्य से सम्पर्क बढ़ना शुरू हुआ। इसका एक प्रभाव और परिणाम यह हुआ कि रंगमंच से संबद्ध या उसमें रुचि रखने वाले नाटककारों तथा अन्य लेखकों ने एकांकी लिखे। उनमें उपेन्द्र नाथ अश्क, जगदीश चंद्र माथुर, धर्मवीर भारती, लक्ष्मी नारायण लाल, विष्णु प्रभाकर आदि उल्लेखनीय हैं। इनके एकांकाकियों में रंगमंचीय चेतना, दृष्टि या अनुभव का आधार होने के कारण एक भिन्न स्वर और स्तर उभर आया और उसने इन्हें सामान्य रंगमंचीय लेखन और कार्यकलाप से जोड़ दिया। यह प्रक्रिया पिछले दो दशकों में कमोबेश जारी रही है और अनेक रचनाकारों ने रंगमंच के लिए एकांकी या छोटे नाटक लिखे हैं। इनमें प्रायः सभी महत्वपूर्ण नाटककार हैं, भले ही वे साथ में उतने ही या अधिक प्रतिष्ठित कवि, कहानी लेखक या उपन्यासकार भी हों।
इस बीच रंगमंच और नाटक-रचना के बीच सक्रिय और जीवंत संपर्क के फलस्वरूप नाटक और एकांकी के बीच विभाजन एक हद तक निरर्थक हो गया है। अब ऐसे कई नाटक लिखे जाते हैं जिनकी प्रदर्शन अवधि डेढ़-दो या ढाई घंटे की होने पर भी उनमें कोई अंक-विभाजन नहीं होता और कार्य-व्यापार शुरू से अंत तक अबाध चलता जाता है। इससे भिन्न कई छोटी अवधि के नाटक ऐसे हैं जिनमें कई-कई अंक या दृश्य हैं, जिनका कार्य-व्यापार एक से अधिक स्थलों पर चलता है। ऐसे भी कई छोटे नाटक लिखे गये हैं जिनकी प्रदर्शन अवधि एक से डेढ़ घंटे के बीच ही होती है, पर जिनमें कार्य-व्यापार अपनी सघनता और बहु-स्तरीयता के कारण संपूर्ण नाट्यानुभव प्रस्तुत करता है।
इस दृष्टि से यह उपयुक्त लगता है कि एकांकी की कोई अलग कोटि या वर्ग मनाने की बजाय छोटी अवधि के नाटकों को लघु-नाटक ही कहा जाए। प्रस्तुत संग्रह में नाटकों के चुनाव में यही दृष्टि रखी गयी है और उन्हें लघु-नाटक ही कहा गया है।
इस संग्रह में दस लघु-नाटक हैं। इनके लेखक लगभग सभी इस दौर के अग्रणी और महत्वपूर्ण नाटककार हैं। एक-दो नाटक ऐसे भी शामिल किये गये हैं जो रचना की दृष्टि से अपने आप में रोचक और कल्पनाशील नाट्य-बोध की उपज हैं, भले ही वे नाटककार के रूप में बहुत विख्यात न हों।
मोहन राकेश मौजूदा दौर में हिंदी के सबसे क्षमताशील नाटककार रहे हैं। उनके लघु-नाटकों में भी सूक्ष्म नाटकीय बोध, समकालीन प्रासंगिकता, सार्थक विषयवस्तु, सधा हुआ शिल्प और बड़ी एकाग्र नाट्य-भाषा आदि नाट्य-रचना के सभी तत्व मौजूद हैं। उनके संग्रह अंडे के छिलके तथा अन्य एकांकी और बीज नाटक उनकी मृत्यु के बाद ही छपे, यद्यपि इनके नाटक अलग-अलग पत्र-पत्रिकाओं में पहले छप चुके थे। इनमें, विशेषकर अंतिम कुछ वर्षों में लिखे गये। शायद, हां, और बहुत बड़ा सवाल में, नाटक की भाषा के और भी गहरे परीक्षण और कई प्रकार के प्रयोगों की कोशिश दिखाई पड़ती है। राकेश के नाट्य-शिल्प में बुनावट की सहजता के साथ स्थितियों और चरित्रों के अंतर्विरोध की बड़ी सूक्ष्म अभिव्यक्ति है। बहुत बड़ा सवाल छोटी-से-छोटी बात के लिए व्यर्थ के सेमिनार, गोष्ठी और मीटिंग करने और लोगों की क्षुद्र आत्मलीनता पर व्यंग्य है। इसमें बारह पात्र हैं पर बहुत ही नुकीलेपन से उनके अलग-अलग व्यक्तित्व, रुझान और सामाजिक पृष्ठभूमि को उकेर दिया गया है। चरित्रों की भाषा में, उनकी छोटी-छोटी हरकतों-आदतों में, उनका दृश्य-रूप बड़ी कल्पनाशीलता के साथ उभर आता है।
संवेदना और शिल्प दोनों ही में मोहन राकेश से एकदम अलग नाटककार हैं विपिन कुमार अग्रवाल, जो सर्वथा नये ढंग से समकालीन जीवन की असंगतियों को प्रस्तुत करते हैं। वह एक हद तक भुवनेश्वर की ही परंपरा को आगे बढ़ाते हैं, और उन्होंने भी अधिकतर लघु-नाटक ही लिखे हैं। अपेक्षाकृत लंबे लोटन के अलावा, उनके लघु-नाटकों के दो संग्रह प्रकाशित हुए हैं- तीन अपाहिज और खोये हुए आदमी की खोज। विपिन कुमार अग्रवाल के नाटक यथार्थवादी शैली को तोड़कर जीवन की विसंगति को स्थितियों और भाषा की विसंगतियों द्वारा भी व्यंजित करते हैं। विपिन कुमार अग्रवाल कवि हैं और कविता ने उनके नाटकों की भाषा को अधिक सघन, पारदर्शी, व्यंजनापूर्ण तथा बहुस्तरीय बनाया है, अन्य कवि-नाटककारों की तरह रंगीन और स्फीत नहीं। उनके नाटकों में आज के राजनीतिक, सामाजिक और बौद्धिक जीवन की आत्मवंचना, ढोंग और दिशाहीनता को उधेड़ा गया है। तीन अपाहिज में स्वाधीनता के बाद पूरी पीढ़ी के अपाहिज बना दिये जाने की हालत दिखायी गयी है। तीनों अपाहिज बड़े तीखे ढंग से सारी व्यवस्था और मानवीय आधारों के टूट जाने की स्थिति को पेश करते हैं। इस नाटक के शिल्प और भाषा में कविता जैसी परोक्ष, बिंबात्मक व्यंजना है।
सुरेन्द्र वर्मा ने कई बहु-चर्चित और मंचित पूर्णाकार नाटकों के अलावा लघु-नाटक भी लिखे हैं जिनका एक संग्रह, नींद क्यों रात भर नहीं आती नाम से प्रकाशित हुआ है। यहां संकलित मरणोपरांत में, उनके अधिकांश पूर्णाकार नाटकों की भाँति, स्त्री-पुरुष संबंधों की बड़ी सूक्ष्म और संवेदनशील पड़ताल है। इसमें एक स्त्री की मृत्यु के बाद उसके पति और प्रेमी को आमने-सामने लाकर इन संबंधों की अनेक परतों और विडंबनाओं का एक नया आयाम उद्घाटित किया गया है। नाटक का शिल्प यथार्थवादी है, पर उसकी सघनता में एक तरह की काव्यात्मकता है जो उसे बहुत प्रभावी बनाती है। वर्ष 1996 में इनके चर्चित उपन्यास ‘मुझे चांद चाहिए’ के लिए इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
कवि-कथाकर मणि मधुकर ने बहुचर्चित रसगंधर्व के अलावा कई अन्य लोकप्रिय पूर्णाकार नाटकों के साथ-साथ अनेक लघु नाटक लिखे हैं। उनका एक प्रकाशित संग्रह है सलवटों में संवाद। यहां संकलित नाटक अंधी आंखों का आकाश अभी पुस्तकाकार प्रकाशित नहीं हुआ है। अंधी आंखों का आकाश एक निम्न-मध्यवर्गीय परिवार की लड़की के बारे में है जिसे प्रेम करने वाला युवक एक अच्छी नौकरी के लिए अपने अफसर की बेटी से विवाह कर लेता है और लड़की धीरे-धीरे अपना शरीर बेचने के लिए विवश होती है। नाटक का सारा कार्य-व्यापार एक पार्क में घटित होता है जहां दूसरों के अतिरिक्त एक पात्र स्वयं ईश्वर है ! नाटक में करुणा, व्यंग्य और विडंबना का बड़ा प्रभावी मेल है। रेडियो नाटक की कुछ छाप के बावजूद, इस नाटक के रूप और शिल्प में नवीनता, चमक और निपुणता है।
इस संकलन के सबसे लंबे नाटक अजातघर के रचनाकार रामेश्वर प्रेम भी कवि हैं। उन्होंने कई नाटक लिखे हैं जिनमें से कोई भी बहुत लंबा नहीं है। अजातघर एक सर्वथा अछूते अनुभव का ऐसा सघन और विचलित कर देने वाला रूप है जो उसे पिछले दिनों लिखे गये लघु-नाटकों में खास जगह देता है। सिर्फ दो ही पात्रों और कुछ आवाजों से उत्पन्न स्थितियों तथा वातावरण की असामान्यता को, और आवेगात्मक तनाव की तीव्रता को, इसमें जिस तरह से निभाया गया है वह हिंदी नाटक में भाव-वस्तु और शिल्प की दृष्टि से नया और महत्वपूर्ण है।
कवि-कथाकार-पत्रकार सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने अपने बहुमंचित नाटक बकरी से हिंदी नाटक में एक नये मुहाविरे के विकास में महत्वपूर्ण योग दिया। उन्होंने कई छोटे नाटक लिखे हैं जो अभी पुस्तकाकार प्रकाशित नहीं हुए हैं। उनके हवालात में हमारे समाज के कानून और व्यवस्था की हालत पर टिप्पणी है। नाटक में कुल चार पात्र हैं, तीन लड़के और एक पुलिस का सिपाही। लड़के सिपाही से जिद करके कहते हैं कि उन्होंने बड़े-बड़े अपराध किये हैं और उन्हें थाने ले जाकर हवालात में बंद कर दिया जाए। ऐसी अनोखी जिद का वास्तविक कारण यह है कि बेघर हैं और उनके कपड़े फटे हुए हैं। भयानक सर्दी की रात में उन्हें हवालात में कुछ तो राहत मिलेगी। इस छोटे से नाटक में हास्य, व्यंग्य और करुणा का बड़ा कल्पनाशील मिश्रण है, सर्वेश्वर जी की चुटीली भाषा और गीतों का चमत्कार तो है ही।
कथाकार रमेश बक्षी अपने पहले साहसिक नाटक देवयानी का कहना है से ही विख्यात हो गये। कई नाटकों के अलावा उनके लघु-नाटकों का भी एक संग्रह प्रकाशित है-छोटे नाटक। पिनकुशन में तानाशाही व्यवस्था की अराजकता और उसमें बदलाव की कोशिश से एक और निरंकुश व्यवस्था की स्थापना दिखाई गयी है। यह एक तरह का विसंगतिवादी फार्स है जो प्रतीकात्मकता और अतिरंजना के द्वारा तर्कशून्य स्थितियों को व्यंजित करता है।
कल्पना के खेल के लेखक ललित मोहन थपल्याल ने गढ़वाली और हिंदी में कई बड़े रोचक, छोटे किंतु पूर्णाकार नाटक लिखे हैं। उनके इस नाटक का कार्य-व्यापार न्यूयार्क में बसे भारतीयों की दुनिया से संबंधित है, जिसमें विनोदपूर्ण सधे हुए अंदाज में, और आकर्षक, लचीले शिल्प के साथ, स्त्री-पुरुष संबंधों को पेश किया गया है। इसमें दिवास्वप्न, पूर्वावलोकन की युक्तियों के अलावा गीतों और कविताओं का भी बड़ा आकर्षक प्रयोग है।
शांति मेहरोत्रा और शंभुनाथ सिंह साहित्य-जगत में जाने-पहचाने नाम होते हुए भी नाटककार के रूप में बहुत परिचित नहीं हैं, यद्यपि शांति मेहरोत्रा का एक नाटक, ठहरा हुआ पानी प्रकाशित हो चुका है। इस संग्रह में संकलित इन दोनों के ही नाटक कुछ नयी प्रवृत्तियों और उपलब्धियों के सूचक हैं। शांति मेहरोत्रा का एक और दिन आज की बाहरी तड़क-भड़क और टीमटाम की जिंदगी में एक संवेदनशील और कलात्मक रुझानवाली स्त्री के जीवन की विडंबना को पेश करता है। इसमें भी यथार्थवादी ढांचे को तोड़कर एक काल्पनिक दिवास्वप्न को यथार्थरूप में पेश करने की युक्ति का प्रयोग किया गया है। इसकी भाषा में प्रवाह और सहजता है, यद्यपि बुनावट इतनी कसी हुई नहीं है।
शंभुनाथ सिंह के दीवान की वापसी में एक रंगमंचीय रूढ़ि का बड़ा दिलचस्प प्रयोग है। यथार्थवादी नाटक की यह एक रूढ़ि है कि दर्शक इस प्रकार नाट्य-व्यापार को देखता है मानो कमरे की चौथी दीवार सामने से हटा दी गयी हो। दीवार की वापसी में पात्र के मन में यथार्थ और भ्रम के गडमड होने को इस चौथी दीवार के होने न होने के भ्रम के सहारे अभिव्यक्त किया गया है। रंगमंचीय प्रयोग की दृष्टि से यह नाटक नयी संभावनाएं प्रस्तुत करता है।
इस प्रकार इस संग्रह में संकलित नाटक समकालीन नाटक-लेखन में कथ्य, भावदशा, परिवेश, शैली, शिल्प आदि की विविधता की एक बानगी पेश करते हैं। मगर पिछले वर्षों में इनके अलावा भी ऐसे कई लघु-नाटक लिखे गये हैं जो रोचकता या कल्पनाशीलता के लिहाज से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। यह आशा की जा सकती है कि कभी वे सब भी नाटक प्रेमियों को एकत्र सुलभ हो सकेंगे।
पर वास्तव में व्यापक रूप से आधुनिक ढंग का एकांकी-लेखन हिंदी में इस शताब्दी के चौथे दशक में ही शुरू हुआ। इसकी प्रेरणा शायद अंग्रेजी के कर्टेन रेजर से, यानी मुख्य नाटक शुरू होने के पहले दर्शकों को शांत रखने के लिए प्रस्तुत किये गये अल्पकालीन नाट्य-प्रदर्शन से आयी। पर जहाँ अंग्रेजी के ‘कर्टेन रेजर’ का जन्म रंगमंच पर हुआ, वही हिंदी में एकांकी नाटक का प्रारंभ मूलतःरंगमंच की जरूरतों के लिए नहीं हुआ। चौथे दशक में हिंदी में कोई रंगमंच था ही नहीं। पारसी थिएटर कंपनियां भी, जो शहर-शहर घूमकर थोड़े-बहुत नाटक दिखाती रहती थीं, अब बंद हो रही थीं, नाटक खेलने वाली अव्यावसायिक मंडलियां तो नहीं के बराबर ही थीं। जो थोड़ा-बहुत नाटक देखने-खेलने और विशेषकर पढ़ने का शौक था, वह विश्वविद्यालयों और कालेजों तक ही सीमित था। हिंदी में एकांकी मूलतः इसी समुदाय की जरूरतों के लिए लिखे जाने शुरू हुए और मुख्यतः उन्हीं को पूरा करते रहे। इसी कारण बहुत ही कच्चे, यदा-कदा होने वाले प्रदर्शनों से संबद्ध होने के कारण हिन्दी एकांकी पर एक प्रकार के शौकियापन की छाप लगातार रहती आयी।
परवर्ती वर्षों में हिंदी का एकांकी-लेखन सक्रिय और समर्थ रंगमंच के अभाव में अधिकाधिक ‘साहित्यिक’ विधा का रूप लेता गया और धीरे-धीरे उसने विश्वविद्यालयों में हिंदी-साहित्य के पाठ्यक्रमों में स्थान बना लिया। चौथे दशक के अंत में रेडियो केंद्र खुलने से उनके लिए भी छोटे नाटक-नुमा रूपकों की जरूरत होने लगी और उसने भी अनेक लेखकों-कवियों, कथाकारों, उपन्यासकारों को, कुछ शौक के लिए, कुछ नयी विधा में हाथ आजमाने के लिए, और कुछ अतिरिक्त आय के लिए, एकांकी लिखने को प्रेरित किया। इस प्रकार हिंदी एकांकी-लेखन नाटक और रंगमंच का एक अंग और अंश होने के बजाय, मूलतः अन्य सूत्रों से अधिक जुड़ा रहा है और इसका बड़ा गहरा और प्रत्यक्ष प्रभाव हमारे संपूर्ण एकांकी साहित्य पर साफ दिखाई पड़ता है।
यह नहीं कि इस तरह लिखे जाने वाले एकांकी कभी खेले नहीं जाते थे। निस्संदेह विश्वविद्यालयों और स्कूल-कालेजों के वार्षिक अधिवेशनों में, या कभी-कभी अन्य अवसरों पर किसी-किसी अधिक अग्रगामी विश्वविद्यालय के अन्य शैक्षिक संगठनों या क्लबों द्वारा, या किसी-किसी कालेज की ‘ड्रमेटिक एसोसिएशन’ द्वारा उनके प्रदर्शन होते रहे हैं। स्वाधीनता मिलने के बाद से तो यह प्रक्रिया कई गुना बढ़ी है। पर ऐसे अधिकांश प्रदर्शन रंगमंचीय कार्य-कलाप की इतनी कम जानकारी और इतनी कम तैयारी के साथ होते रहे हैं, और अब भी होते हैं, कि उनको किसी प्रकार के कलात्मक कार्य का दर्जा देना कठिन है। इसीलिए अधिकांश एकांकी न तो किसी सक्षम-समर्थ रंगमंच के प्रभाव से रचे गये, न बाद में वैसे रंगमंच पर उनका कोई परीक्षण-प्रयोग हो सका।
इस दौर के एकांकीकारों में एक महत्वपूर्ण अपवाद है भुवनेश्वर। उन्होंने केवल एकांकी ही लिखे और उनकी संख्या भी बहुत नहीं है। उनका पहला संग्रह कारवां सन् 1935 में प्रकाशित हुआ था और बाद में पांचवें-छठे दशक में भी उन्होंने कुछ एकांकी लिखे। पर उनके ऊपर बर्नाड शा और इब्सन के विचारों और नाट्य-चेतना का गहरा प्रभाव पड़ा था। साथ ही उनका अपना भावबोध भी कुछ इस प्रकार का था कि वे अपने अनुभव की नाटकीयता को सहज ही पकड़ पाते थे, और ऐसे अंदाज से प्रस्तुत करते थे जो हिंदी नाटक लेखन के लिए एकदम नया और अपरिचित था। बल्कि शायद यह कहना ज्यादा ठीक हो कि उनके नाटकों की संवेदना और संरचना, दोनों ही अपने युग से बहुत आगे की थी। विषयवस्तु की सूक्ष्मता और सार्थकता, शिल्प की नवीनता, और भाषा की बहुस्तरीयता तथा व्यंजना की दृष्टि से उनके नाटक आज भी महत्वपूर्ण हैं। यद्यपि रंगमंच के अभाव में शुरू में वे बहुत खेले नहीं गये, पर पिछले दो-तीन दशक में ऊसर, तांबे के कीड़े, स्ट्राइक, आजादी की नींव आदि उनके नाटक जब भी मंच पर प्रस्तुत किये गये, सदा बहुत प्रभावी हुए हैं।
छठे दशक के मध्य से हिंदी रंगमंच का नये सिरे से विकास और प्रसार होने पर हिंदी एकांकी का जीवंत रंगकार्य से सम्पर्क बढ़ना शुरू हुआ। इसका एक प्रभाव और परिणाम यह हुआ कि रंगमंच से संबद्ध या उसमें रुचि रखने वाले नाटककारों तथा अन्य लेखकों ने एकांकी लिखे। उनमें उपेन्द्र नाथ अश्क, जगदीश चंद्र माथुर, धर्मवीर भारती, लक्ष्मी नारायण लाल, विष्णु प्रभाकर आदि उल्लेखनीय हैं। इनके एकांकाकियों में रंगमंचीय चेतना, दृष्टि या अनुभव का आधार होने के कारण एक भिन्न स्वर और स्तर उभर आया और उसने इन्हें सामान्य रंगमंचीय लेखन और कार्यकलाप से जोड़ दिया। यह प्रक्रिया पिछले दो दशकों में कमोबेश जारी रही है और अनेक रचनाकारों ने रंगमंच के लिए एकांकी या छोटे नाटक लिखे हैं। इनमें प्रायः सभी महत्वपूर्ण नाटककार हैं, भले ही वे साथ में उतने ही या अधिक प्रतिष्ठित कवि, कहानी लेखक या उपन्यासकार भी हों।
इस बीच रंगमंच और नाटक-रचना के बीच सक्रिय और जीवंत संपर्क के फलस्वरूप नाटक और एकांकी के बीच विभाजन एक हद तक निरर्थक हो गया है। अब ऐसे कई नाटक लिखे जाते हैं जिनकी प्रदर्शन अवधि डेढ़-दो या ढाई घंटे की होने पर भी उनमें कोई अंक-विभाजन नहीं होता और कार्य-व्यापार शुरू से अंत तक अबाध चलता जाता है। इससे भिन्न कई छोटी अवधि के नाटक ऐसे हैं जिनमें कई-कई अंक या दृश्य हैं, जिनका कार्य-व्यापार एक से अधिक स्थलों पर चलता है। ऐसे भी कई छोटे नाटक लिखे गये हैं जिनकी प्रदर्शन अवधि एक से डेढ़ घंटे के बीच ही होती है, पर जिनमें कार्य-व्यापार अपनी सघनता और बहु-स्तरीयता के कारण संपूर्ण नाट्यानुभव प्रस्तुत करता है।
इस दृष्टि से यह उपयुक्त लगता है कि एकांकी की कोई अलग कोटि या वर्ग मनाने की बजाय छोटी अवधि के नाटकों को लघु-नाटक ही कहा जाए। प्रस्तुत संग्रह में नाटकों के चुनाव में यही दृष्टि रखी गयी है और उन्हें लघु-नाटक ही कहा गया है।
इस संग्रह में दस लघु-नाटक हैं। इनके लेखक लगभग सभी इस दौर के अग्रणी और महत्वपूर्ण नाटककार हैं। एक-दो नाटक ऐसे भी शामिल किये गये हैं जो रचना की दृष्टि से अपने आप में रोचक और कल्पनाशील नाट्य-बोध की उपज हैं, भले ही वे नाटककार के रूप में बहुत विख्यात न हों।
मोहन राकेश मौजूदा दौर में हिंदी के सबसे क्षमताशील नाटककार रहे हैं। उनके लघु-नाटकों में भी सूक्ष्म नाटकीय बोध, समकालीन प्रासंगिकता, सार्थक विषयवस्तु, सधा हुआ शिल्प और बड़ी एकाग्र नाट्य-भाषा आदि नाट्य-रचना के सभी तत्व मौजूद हैं। उनके संग्रह अंडे के छिलके तथा अन्य एकांकी और बीज नाटक उनकी मृत्यु के बाद ही छपे, यद्यपि इनके नाटक अलग-अलग पत्र-पत्रिकाओं में पहले छप चुके थे। इनमें, विशेषकर अंतिम कुछ वर्षों में लिखे गये। शायद, हां, और बहुत बड़ा सवाल में, नाटक की भाषा के और भी गहरे परीक्षण और कई प्रकार के प्रयोगों की कोशिश दिखाई पड़ती है। राकेश के नाट्य-शिल्प में बुनावट की सहजता के साथ स्थितियों और चरित्रों के अंतर्विरोध की बड़ी सूक्ष्म अभिव्यक्ति है। बहुत बड़ा सवाल छोटी-से-छोटी बात के लिए व्यर्थ के सेमिनार, गोष्ठी और मीटिंग करने और लोगों की क्षुद्र आत्मलीनता पर व्यंग्य है। इसमें बारह पात्र हैं पर बहुत ही नुकीलेपन से उनके अलग-अलग व्यक्तित्व, रुझान और सामाजिक पृष्ठभूमि को उकेर दिया गया है। चरित्रों की भाषा में, उनकी छोटी-छोटी हरकतों-आदतों में, उनका दृश्य-रूप बड़ी कल्पनाशीलता के साथ उभर आता है।
संवेदना और शिल्प दोनों ही में मोहन राकेश से एकदम अलग नाटककार हैं विपिन कुमार अग्रवाल, जो सर्वथा नये ढंग से समकालीन जीवन की असंगतियों को प्रस्तुत करते हैं। वह एक हद तक भुवनेश्वर की ही परंपरा को आगे बढ़ाते हैं, और उन्होंने भी अधिकतर लघु-नाटक ही लिखे हैं। अपेक्षाकृत लंबे लोटन के अलावा, उनके लघु-नाटकों के दो संग्रह प्रकाशित हुए हैं- तीन अपाहिज और खोये हुए आदमी की खोज। विपिन कुमार अग्रवाल के नाटक यथार्थवादी शैली को तोड़कर जीवन की विसंगति को स्थितियों और भाषा की विसंगतियों द्वारा भी व्यंजित करते हैं। विपिन कुमार अग्रवाल कवि हैं और कविता ने उनके नाटकों की भाषा को अधिक सघन, पारदर्शी, व्यंजनापूर्ण तथा बहुस्तरीय बनाया है, अन्य कवि-नाटककारों की तरह रंगीन और स्फीत नहीं। उनके नाटकों में आज के राजनीतिक, सामाजिक और बौद्धिक जीवन की आत्मवंचना, ढोंग और दिशाहीनता को उधेड़ा गया है। तीन अपाहिज में स्वाधीनता के बाद पूरी पीढ़ी के अपाहिज बना दिये जाने की हालत दिखायी गयी है। तीनों अपाहिज बड़े तीखे ढंग से सारी व्यवस्था और मानवीय आधारों के टूट जाने की स्थिति को पेश करते हैं। इस नाटक के शिल्प और भाषा में कविता जैसी परोक्ष, बिंबात्मक व्यंजना है।
सुरेन्द्र वर्मा ने कई बहु-चर्चित और मंचित पूर्णाकार नाटकों के अलावा लघु-नाटक भी लिखे हैं जिनका एक संग्रह, नींद क्यों रात भर नहीं आती नाम से प्रकाशित हुआ है। यहां संकलित मरणोपरांत में, उनके अधिकांश पूर्णाकार नाटकों की भाँति, स्त्री-पुरुष संबंधों की बड़ी सूक्ष्म और संवेदनशील पड़ताल है। इसमें एक स्त्री की मृत्यु के बाद उसके पति और प्रेमी को आमने-सामने लाकर इन संबंधों की अनेक परतों और विडंबनाओं का एक नया आयाम उद्घाटित किया गया है। नाटक का शिल्प यथार्थवादी है, पर उसकी सघनता में एक तरह की काव्यात्मकता है जो उसे बहुत प्रभावी बनाती है। वर्ष 1996 में इनके चर्चित उपन्यास ‘मुझे चांद चाहिए’ के लिए इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
कवि-कथाकर मणि मधुकर ने बहुचर्चित रसगंधर्व के अलावा कई अन्य लोकप्रिय पूर्णाकार नाटकों के साथ-साथ अनेक लघु नाटक लिखे हैं। उनका एक प्रकाशित संग्रह है सलवटों में संवाद। यहां संकलित नाटक अंधी आंखों का आकाश अभी पुस्तकाकार प्रकाशित नहीं हुआ है। अंधी आंखों का आकाश एक निम्न-मध्यवर्गीय परिवार की लड़की के बारे में है जिसे प्रेम करने वाला युवक एक अच्छी नौकरी के लिए अपने अफसर की बेटी से विवाह कर लेता है और लड़की धीरे-धीरे अपना शरीर बेचने के लिए विवश होती है। नाटक का सारा कार्य-व्यापार एक पार्क में घटित होता है जहां दूसरों के अतिरिक्त एक पात्र स्वयं ईश्वर है ! नाटक में करुणा, व्यंग्य और विडंबना का बड़ा प्रभावी मेल है। रेडियो नाटक की कुछ छाप के बावजूद, इस नाटक के रूप और शिल्प में नवीनता, चमक और निपुणता है।
इस संकलन के सबसे लंबे नाटक अजातघर के रचनाकार रामेश्वर प्रेम भी कवि हैं। उन्होंने कई नाटक लिखे हैं जिनमें से कोई भी बहुत लंबा नहीं है। अजातघर एक सर्वथा अछूते अनुभव का ऐसा सघन और विचलित कर देने वाला रूप है जो उसे पिछले दिनों लिखे गये लघु-नाटकों में खास जगह देता है। सिर्फ दो ही पात्रों और कुछ आवाजों से उत्पन्न स्थितियों तथा वातावरण की असामान्यता को, और आवेगात्मक तनाव की तीव्रता को, इसमें जिस तरह से निभाया गया है वह हिंदी नाटक में भाव-वस्तु और शिल्प की दृष्टि से नया और महत्वपूर्ण है।
कवि-कथाकार-पत्रकार सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने अपने बहुमंचित नाटक बकरी से हिंदी नाटक में एक नये मुहाविरे के विकास में महत्वपूर्ण योग दिया। उन्होंने कई छोटे नाटक लिखे हैं जो अभी पुस्तकाकार प्रकाशित नहीं हुए हैं। उनके हवालात में हमारे समाज के कानून और व्यवस्था की हालत पर टिप्पणी है। नाटक में कुल चार पात्र हैं, तीन लड़के और एक पुलिस का सिपाही। लड़के सिपाही से जिद करके कहते हैं कि उन्होंने बड़े-बड़े अपराध किये हैं और उन्हें थाने ले जाकर हवालात में बंद कर दिया जाए। ऐसी अनोखी जिद का वास्तविक कारण यह है कि बेघर हैं और उनके कपड़े फटे हुए हैं। भयानक सर्दी की रात में उन्हें हवालात में कुछ तो राहत मिलेगी। इस छोटे से नाटक में हास्य, व्यंग्य और करुणा का बड़ा कल्पनाशील मिश्रण है, सर्वेश्वर जी की चुटीली भाषा और गीतों का चमत्कार तो है ही।
कथाकार रमेश बक्षी अपने पहले साहसिक नाटक देवयानी का कहना है से ही विख्यात हो गये। कई नाटकों के अलावा उनके लघु-नाटकों का भी एक संग्रह प्रकाशित है-छोटे नाटक। पिनकुशन में तानाशाही व्यवस्था की अराजकता और उसमें बदलाव की कोशिश से एक और निरंकुश व्यवस्था की स्थापना दिखाई गयी है। यह एक तरह का विसंगतिवादी फार्स है जो प्रतीकात्मकता और अतिरंजना के द्वारा तर्कशून्य स्थितियों को व्यंजित करता है।
कल्पना के खेल के लेखक ललित मोहन थपल्याल ने गढ़वाली और हिंदी में कई बड़े रोचक, छोटे किंतु पूर्णाकार नाटक लिखे हैं। उनके इस नाटक का कार्य-व्यापार न्यूयार्क में बसे भारतीयों की दुनिया से संबंधित है, जिसमें विनोदपूर्ण सधे हुए अंदाज में, और आकर्षक, लचीले शिल्प के साथ, स्त्री-पुरुष संबंधों को पेश किया गया है। इसमें दिवास्वप्न, पूर्वावलोकन की युक्तियों के अलावा गीतों और कविताओं का भी बड़ा आकर्षक प्रयोग है।
शांति मेहरोत्रा और शंभुनाथ सिंह साहित्य-जगत में जाने-पहचाने नाम होते हुए भी नाटककार के रूप में बहुत परिचित नहीं हैं, यद्यपि शांति मेहरोत्रा का एक नाटक, ठहरा हुआ पानी प्रकाशित हो चुका है। इस संग्रह में संकलित इन दोनों के ही नाटक कुछ नयी प्रवृत्तियों और उपलब्धियों के सूचक हैं। शांति मेहरोत्रा का एक और दिन आज की बाहरी तड़क-भड़क और टीमटाम की जिंदगी में एक संवेदनशील और कलात्मक रुझानवाली स्त्री के जीवन की विडंबना को पेश करता है। इसमें भी यथार्थवादी ढांचे को तोड़कर एक काल्पनिक दिवास्वप्न को यथार्थरूप में पेश करने की युक्ति का प्रयोग किया गया है। इसकी भाषा में प्रवाह और सहजता है, यद्यपि बुनावट इतनी कसी हुई नहीं है।
शंभुनाथ सिंह के दीवान की वापसी में एक रंगमंचीय रूढ़ि का बड़ा दिलचस्प प्रयोग है। यथार्थवादी नाटक की यह एक रूढ़ि है कि दर्शक इस प्रकार नाट्य-व्यापार को देखता है मानो कमरे की चौथी दीवार सामने से हटा दी गयी हो। दीवार की वापसी में पात्र के मन में यथार्थ और भ्रम के गडमड होने को इस चौथी दीवार के होने न होने के भ्रम के सहारे अभिव्यक्त किया गया है। रंगमंचीय प्रयोग की दृष्टि से यह नाटक नयी संभावनाएं प्रस्तुत करता है।
इस प्रकार इस संग्रह में संकलित नाटक समकालीन नाटक-लेखन में कथ्य, भावदशा, परिवेश, शैली, शिल्प आदि की विविधता की एक बानगी पेश करते हैं। मगर पिछले वर्षों में इनके अलावा भी ऐसे कई लघु-नाटक लिखे गये हैं जो रोचकता या कल्पनाशीलता के लिहाज से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। यह आशा की जा सकती है कि कभी वे सब भी नाटक प्रेमियों को एकत्र सुलभ हो सकेंगे।
नेमिचंद्र जैन
बहुत बड़ा सवाल
पात्र
रामभरोसे
श्यामभरोसे
शर्मा
कपूर
मनोरमा
संतोष
गुरप्रीत
प्रेमप्रकाश
दीनदयाल
रमेश
मोहन
सत्यपाल
रामभरोसे
श्यामभरोसे
शर्मा
कपूर
मनोरमा
संतोष
गुरप्रीत
प्रेमप्रकाश
दीनदयाल
रमेश
मोहन
सत्यपाल
पहला दृश्य
स्थानः एक स्कूल का कमरा जिसे ब्लैकबोर्ड
कोने में हटाकर
मीटिंग के लिए तैयार कर लिया गया है। मास्टर की कुर्सी-मेज अध्यक्ष के लिए
है और बच्चों के डेस्क शेष सदस्यों के लिए। पीछे दीवार पर संसार का बहुत
बड़ा मानचित्र लटक रहा है। आने-जाने के लिए दोनों तरफ दरवाजे हैं।
परदा उठने पर रामभरोसे और श्यामभरोसे डेस्कों से धूल झाड़ रहे हैं।
श्यामभरोसे : हाथ रोक कर रामभरोसे ! रामभरोसे बिना सुने धूल झाड़ता रहता है।
श्मामभरोसे: ए रामभरोसे।
रामभरोसे: बिना हाथ रोके क्या है ?
श्यामभरोसे: इतनी धूल क्यों उड़ाता है ? आहिस्ता से नहीं झाड़ा जाता ? रोज-रोज की धूल से फेफड़े पहले ही खाये हुए हैं।
रामभरोसे: तो रोता क्यों है ? जान पांच बरस में नहीं जायेगी, चार बरस में चली जायेगी।
श्यामभरोसे: तू अपनी जान चाहे पांच बरस में दे, चाहे एक बरस में। पर मेरी जान अभी रहने दे।
रामभरोसे: ससुरी रोज-रोज ये मीटिंग होंगी, तो किसकी जान रहेगी ? आज एक का जन्म-दिवस होकर निकलता है, तो कल दूसरे का मरन-दिवस आ जाता है। जनमें-मरें ये, धूल खायें रामभरोसे, श्यामभरोसे। जोर-जोर से झाड़ता हुआ सबेरे निकालो, तो शाम को चली आती है। शाम को निकालो, तो सबेर नहीं होने देती।
श्यामभरोसे: आज भी किसी का जन्म-दिवस है क्या ?
रामभरोसे: पता नहीं कौन दिवस है। अपना मरन-दिवस है। ढीले-ढाले ढंग से फाइल हाथ में लिये शर्मा बाहर से आता है।
शर्मा: अपने-आप से बड़बड़ाता अभी तक कोई भी नहीं है यहां।
रामभरोसे: हाथ रोककर कोई भी नहीं है, माने ?
शर्मा: माने जो आने वाले थे, उनमें से कोई भी ? लोग समझते हैं, मेरे बाप के घर का काम है। जैसे मुझे तनख्वाह मिलती है इसकी। कोई एक आदमी वक्त से नहीं आता।
श्यामभरोसे: साहब, आज किसी की साल-गिरह है यहां पर ?
शर्मा: मेरे झख मारने की साल-गिरह है। तुम लोगों से अभी तक डेस्क साफ नहीं हुए ?
रामभरोसे: देख रहे हो, कर ही रहे हैं।
शर्मा: साढ़े पांच बजे मीटिंग शुरू होने थी और पौने छह बज चुके हैं। लोग देर से आयें, तुम लोगों को तो जगह वक्त से तैयार कर देनी चाहिए।
रामभरोसे: एक घड़ी दिला दो साहब। तब हम वक्त से सब काम कर सकते हैं। हमें क्या मालूम कब पांच बजता है, कब साढ़े पांच।
शर्मा: स्कूल में वक्त से घण्टी नहीं बजाते ?
श्यामभरोसे: सुपरीडेंट की डांट सुनकर बजाते हैं। घड़ी तो स्कूल की कब से खराब पड़ी है।
रामभरोसे: आप लोगों के हाथ पर लगी रहती है, फिर भी देर कर जाते हो। हमारी तो कोई बात ही नहीं है।
श्यामभरोसे: और जल्दी कर दें, तो डांट पड़ती है कि जल्दी क्यों किया, फिर से धूल भर गयी। जल्दी न करें, तो डांट पड़ती है कि जल्दी क्यों नहीं किया, टाइम बरबाद हो रहा है।
रामभरोसे: कोई जादू तो जानते नहीं। हाथ से काम करते हैं, सो कर रहे हैं।
शर्मा: बक-बक मत करो, काम करो। अभी कितना काम बाकी है ?
रामभरोसे: क्लास सारी झाड़ दी है। मास्टर की कुर्सी बाकी है। जाकर उस कुर्सी-मेज को साफ करने लगता है। लो हो गयी यह भी। और बता दो जो झाड़ना हो।
श्यामभरोसे: ब्लैक बोर्ड तो नहीं चाहिए ?
शर्मा: नहीं। पर दोनों आदमी कहीं जाना नहीं। यहीं दरवाजे के पास बैठना। पता नहीं किस काम के लिए जरूरत पड़ जाये। आगे की डेस्क पर बैठने लगता है, पर सहसा उठ जाता है। यह सफाई की है ? देखो कितनी धूल जमीं है यहां। सफाई इस तरह से की जाती है ?
रामभरोसे: क्या पता साहब किस तरह से की जाती है। किसी स्कूल से इस काम की पढ़ाई तो पढ़े नहीं हैं।
श्यामभरोसे: सुपरीडेंट कहता है सीधा झाड़न मारो, सो सीधा मार देते हैं। आप कोई और तरीका बताओ, तो वैसे कर देते हैं।
शर्मा: नानसेंस। अब जैसा हुआ है, रहने दो।
श्यामभरोसे: रहने दो, तो रहने देते हैं।
शर्मा रूमाल से सीट साफ करके डेस्क पर बैठ जाता है।
शर्मा: जाओ, बाहर बैठो अब।
श्यामभरोसे: क्यों साहब, मीटिंग बरखास्त कब होगी ?
शर्मा: क्या पता कब होगी। तुम्हें क्या करना है ?
श्यामभरोसे: कमरे को ताला नहीं लगाना है ? ताला लगेगा, तभी तो यहाँ से जा पायेंगे। नहीं तो सुपरीडेंट कल हमारी जान को आयेगा।
वह और रामभरोसे दोनों दायीं तरफ के दरवाजे के बाहर जा बैठते हैं। रामभरोसे हाथ पर सुरती मलने लगता है। श्यामभरोसे ऊंघने की मुद्रा में टेक लगा लेता है। मनोरमा, संतोष और गुरप्रीत उसी दरवाजे से आती हैं। रामभरोसे आंखें उठाकर चिढ़े हुए भाव से उन्हें आते देखता है।
मनोरमा: क्या बात है शर्मा ? पहरा क्यों बिठा रखा है बाहर ? मीटिंग में मार-धाड़ तो नहीं होने वाली है।
शर्मा: उठता हुआ साढ़े पांच हो गये आप लोगों के ?
मनोरमा: अभी कोई भी तो नहीं आया, सिवाय हमारे।
शर्मा: साढ़े छह तक आराम से आयेंगे लोग। वक्त की पाबंदी तो सिर्फ एक आदमी पर है। क्योंकि वह कमबख्त सेक्रेटरी है।
संतोष: मैंने इसीलिए अपना नाम वापस ले लिया था। मुफ्त की सिरदर्दी।
मनोरमा: तूने इसीलिए नाम वापस ले लिया था कि शर्मा के खिलाफ तुझे तीन वोट भी न मिलते। अवर शर्मा इज ग्रेट।
संतोष: लांग लिव शर्मा।
मनोरमा: गुरप्रीत से तू इतनी गुपचुप क्यों है ?
संतोष: शर्मा के सामने यह हमेशा गुपचुप हो जाती है।
गुरप्रीत: प्लीज।
कपूर मुस्कुराता हुआ बायीं तरफ के दरवाजे से आता है।
कपूर: वाह, वाह।
मनोरमा: वाह, वाह।
कपूर: आप किस चीज की दाद दे रही हैं ?
मनोरमा: आपकी वाह-वाह की।
कपूर: मैं तो इस बात पर वाह-वाह कर रहा था कि शर्मा तीन-तीन लेडीज से घिरा है। सेक्रेटरी होने के ये मजे होते हैं।
शर्मा: आज से तुम सेक्रेटरी ही जाओ।
मनोरमा: और शर्मा को चेयरमैन बना दीजिए।
कपूर: चेयरमैन मत कहिए...वह कहिए..क्या होता है वह...अधि-अक्ष।
संतोष: अध्यक्ष।
कपूर: अधि-अक्ष।
संतोष: जोर देकर अध्यक्ष।
कपूर: जोर देकर अधि-अक्ष। वह तुम्हारा अधि-अक्ष अभी तक नहीं आया, शर्मा ?
शर्मा: तुम्हीं कौन वक्त से आ गये हो ?
कपूर: दस-बीस मिनट लेट, लेट नहीं होता। और फिर मैं तो साधारण सदसिय हूं।
मनोरमा: सीधे मेम्बर क्यों नहीं कह देते ? सदसिय।
कपूर: वह लफ्ज क्या है वैसे ?
मनोरमा: सदस्य।
कपूर: सदसिय।
मनोरमा: जोर देकर सदस्य।
कपूर: जोर देकर सदसिय। मैं पहले ही कहता था इस आदमी को चेयरमैन नहीं बनाना चाहिए। आज छुट्टी का दिन है, वैसे भी ठंड है, घर में रजाई में दुबक कर सो रहा होगा। सॉरी...घर में नहीं होगा, वह होगा आज उसके यहां....
संतोष: किसके यहां ?
गुरप्रीत: प्लीज।
संतोष: नाम तो जान लेने दे।
गुरप्रीत: प्लीज। प्लीज। प्लीज।
कपूर: गुरप्रीत जी नाम जानती हैं।
संतोष: जानती है तू ?
गुरप्रीत: मैं इसीलिए आप लोगों की मीटिंग में नहीं आना चाहती। यहां काम तो कुछ होता नहीं, बस इसी तरह की बातें होती रहती हैं।
कपूर: गुरप्रीत जी की सहेली है वह।
संतोष: अच्छा..वह ?
कपूर: हां, वही।
संतोष: यह कब से ?
कपूर: कब से ? दो साल से तो मैं ही जानता हूं।
संतोष: पर वह तो पहले....
परदा उठने पर रामभरोसे और श्यामभरोसे डेस्कों से धूल झाड़ रहे हैं।
श्यामभरोसे : हाथ रोक कर रामभरोसे ! रामभरोसे बिना सुने धूल झाड़ता रहता है।
श्मामभरोसे: ए रामभरोसे।
रामभरोसे: बिना हाथ रोके क्या है ?
श्यामभरोसे: इतनी धूल क्यों उड़ाता है ? आहिस्ता से नहीं झाड़ा जाता ? रोज-रोज की धूल से फेफड़े पहले ही खाये हुए हैं।
रामभरोसे: तो रोता क्यों है ? जान पांच बरस में नहीं जायेगी, चार बरस में चली जायेगी।
श्यामभरोसे: तू अपनी जान चाहे पांच बरस में दे, चाहे एक बरस में। पर मेरी जान अभी रहने दे।
रामभरोसे: ससुरी रोज-रोज ये मीटिंग होंगी, तो किसकी जान रहेगी ? आज एक का जन्म-दिवस होकर निकलता है, तो कल दूसरे का मरन-दिवस आ जाता है। जनमें-मरें ये, धूल खायें रामभरोसे, श्यामभरोसे। जोर-जोर से झाड़ता हुआ सबेरे निकालो, तो शाम को चली आती है। शाम को निकालो, तो सबेर नहीं होने देती।
श्यामभरोसे: आज भी किसी का जन्म-दिवस है क्या ?
रामभरोसे: पता नहीं कौन दिवस है। अपना मरन-दिवस है। ढीले-ढाले ढंग से फाइल हाथ में लिये शर्मा बाहर से आता है।
शर्मा: अपने-आप से बड़बड़ाता अभी तक कोई भी नहीं है यहां।
रामभरोसे: हाथ रोककर कोई भी नहीं है, माने ?
शर्मा: माने जो आने वाले थे, उनमें से कोई भी ? लोग समझते हैं, मेरे बाप के घर का काम है। जैसे मुझे तनख्वाह मिलती है इसकी। कोई एक आदमी वक्त से नहीं आता।
श्यामभरोसे: साहब, आज किसी की साल-गिरह है यहां पर ?
शर्मा: मेरे झख मारने की साल-गिरह है। तुम लोगों से अभी तक डेस्क साफ नहीं हुए ?
रामभरोसे: देख रहे हो, कर ही रहे हैं।
शर्मा: साढ़े पांच बजे मीटिंग शुरू होने थी और पौने छह बज चुके हैं। लोग देर से आयें, तुम लोगों को तो जगह वक्त से तैयार कर देनी चाहिए।
रामभरोसे: एक घड़ी दिला दो साहब। तब हम वक्त से सब काम कर सकते हैं। हमें क्या मालूम कब पांच बजता है, कब साढ़े पांच।
शर्मा: स्कूल में वक्त से घण्टी नहीं बजाते ?
श्यामभरोसे: सुपरीडेंट की डांट सुनकर बजाते हैं। घड़ी तो स्कूल की कब से खराब पड़ी है।
रामभरोसे: आप लोगों के हाथ पर लगी रहती है, फिर भी देर कर जाते हो। हमारी तो कोई बात ही नहीं है।
श्यामभरोसे: और जल्दी कर दें, तो डांट पड़ती है कि जल्दी क्यों किया, फिर से धूल भर गयी। जल्दी न करें, तो डांट पड़ती है कि जल्दी क्यों नहीं किया, टाइम बरबाद हो रहा है।
रामभरोसे: कोई जादू तो जानते नहीं। हाथ से काम करते हैं, सो कर रहे हैं।
शर्मा: बक-बक मत करो, काम करो। अभी कितना काम बाकी है ?
रामभरोसे: क्लास सारी झाड़ दी है। मास्टर की कुर्सी बाकी है। जाकर उस कुर्सी-मेज को साफ करने लगता है। लो हो गयी यह भी। और बता दो जो झाड़ना हो।
श्यामभरोसे: ब्लैक बोर्ड तो नहीं चाहिए ?
शर्मा: नहीं। पर दोनों आदमी कहीं जाना नहीं। यहीं दरवाजे के पास बैठना। पता नहीं किस काम के लिए जरूरत पड़ जाये। आगे की डेस्क पर बैठने लगता है, पर सहसा उठ जाता है। यह सफाई की है ? देखो कितनी धूल जमीं है यहां। सफाई इस तरह से की जाती है ?
रामभरोसे: क्या पता साहब किस तरह से की जाती है। किसी स्कूल से इस काम की पढ़ाई तो पढ़े नहीं हैं।
श्यामभरोसे: सुपरीडेंट कहता है सीधा झाड़न मारो, सो सीधा मार देते हैं। आप कोई और तरीका बताओ, तो वैसे कर देते हैं।
शर्मा: नानसेंस। अब जैसा हुआ है, रहने दो।
श्यामभरोसे: रहने दो, तो रहने देते हैं।
शर्मा रूमाल से सीट साफ करके डेस्क पर बैठ जाता है।
शर्मा: जाओ, बाहर बैठो अब।
श्यामभरोसे: क्यों साहब, मीटिंग बरखास्त कब होगी ?
शर्मा: क्या पता कब होगी। तुम्हें क्या करना है ?
श्यामभरोसे: कमरे को ताला नहीं लगाना है ? ताला लगेगा, तभी तो यहाँ से जा पायेंगे। नहीं तो सुपरीडेंट कल हमारी जान को आयेगा।
वह और रामभरोसे दोनों दायीं तरफ के दरवाजे के बाहर जा बैठते हैं। रामभरोसे हाथ पर सुरती मलने लगता है। श्यामभरोसे ऊंघने की मुद्रा में टेक लगा लेता है। मनोरमा, संतोष और गुरप्रीत उसी दरवाजे से आती हैं। रामभरोसे आंखें उठाकर चिढ़े हुए भाव से उन्हें आते देखता है।
मनोरमा: क्या बात है शर्मा ? पहरा क्यों बिठा रखा है बाहर ? मीटिंग में मार-धाड़ तो नहीं होने वाली है।
शर्मा: उठता हुआ साढ़े पांच हो गये आप लोगों के ?
मनोरमा: अभी कोई भी तो नहीं आया, सिवाय हमारे।
शर्मा: साढ़े छह तक आराम से आयेंगे लोग। वक्त की पाबंदी तो सिर्फ एक आदमी पर है। क्योंकि वह कमबख्त सेक्रेटरी है।
संतोष: मैंने इसीलिए अपना नाम वापस ले लिया था। मुफ्त की सिरदर्दी।
मनोरमा: तूने इसीलिए नाम वापस ले लिया था कि शर्मा के खिलाफ तुझे तीन वोट भी न मिलते। अवर शर्मा इज ग्रेट।
संतोष: लांग लिव शर्मा।
मनोरमा: गुरप्रीत से तू इतनी गुपचुप क्यों है ?
संतोष: शर्मा के सामने यह हमेशा गुपचुप हो जाती है।
गुरप्रीत: प्लीज।
कपूर मुस्कुराता हुआ बायीं तरफ के दरवाजे से आता है।
कपूर: वाह, वाह।
मनोरमा: वाह, वाह।
कपूर: आप किस चीज की दाद दे रही हैं ?
मनोरमा: आपकी वाह-वाह की।
कपूर: मैं तो इस बात पर वाह-वाह कर रहा था कि शर्मा तीन-तीन लेडीज से घिरा है। सेक्रेटरी होने के ये मजे होते हैं।
शर्मा: आज से तुम सेक्रेटरी ही जाओ।
मनोरमा: और शर्मा को चेयरमैन बना दीजिए।
कपूर: चेयरमैन मत कहिए...वह कहिए..क्या होता है वह...अधि-अक्ष।
संतोष: अध्यक्ष।
कपूर: अधि-अक्ष।
संतोष: जोर देकर अध्यक्ष।
कपूर: जोर देकर अधि-अक्ष। वह तुम्हारा अधि-अक्ष अभी तक नहीं आया, शर्मा ?
शर्मा: तुम्हीं कौन वक्त से आ गये हो ?
कपूर: दस-बीस मिनट लेट, लेट नहीं होता। और फिर मैं तो साधारण सदसिय हूं।
मनोरमा: सीधे मेम्बर क्यों नहीं कह देते ? सदसिय।
कपूर: वह लफ्ज क्या है वैसे ?
मनोरमा: सदस्य।
कपूर: सदसिय।
मनोरमा: जोर देकर सदस्य।
कपूर: जोर देकर सदसिय। मैं पहले ही कहता था इस आदमी को चेयरमैन नहीं बनाना चाहिए। आज छुट्टी का दिन है, वैसे भी ठंड है, घर में रजाई में दुबक कर सो रहा होगा। सॉरी...घर में नहीं होगा, वह होगा आज उसके यहां....
संतोष: किसके यहां ?
गुरप्रीत: प्लीज।
संतोष: नाम तो जान लेने दे।
गुरप्रीत: प्लीज। प्लीज। प्लीज।
कपूर: गुरप्रीत जी नाम जानती हैं।
संतोष: जानती है तू ?
गुरप्रीत: मैं इसीलिए आप लोगों की मीटिंग में नहीं आना चाहती। यहां काम तो कुछ होता नहीं, बस इसी तरह की बातें होती रहती हैं।
कपूर: गुरप्रीत जी की सहेली है वह।
संतोष: अच्छा..वह ?
कपूर: हां, वही।
संतोष: यह कब से ?
कपूर: कब से ? दो साल से तो मैं ही जानता हूं।
संतोष: पर वह तो पहले....
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